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दिल और कबड्डी में बड़ा गहरा संबंध है। आज के दौर में दोनों के अहमियत में कमी आई है। जहाँ कबड्डी एक शानदार खेल होने के बावजूद लोगों के पसंदीदा बनने को तरस रही है। वहीं दिल का हाल भी कुछ कम परेशान करने वाला नहीं है। दिल की सुनने को कोई तैयार ही नहीं है। दिल की सुनने का मतलब यही लगाया जाता है जैसे कि एक पिता अपने बेटे के दोस्त के पिता से कह रहा हो कि "आपका बेटा तो कबड्डी खिलाड़ी बनने का सपना पाल रहा जो कि निहायत बेवकूफी है, कबड्डी खेलने से अच्छा तो एक चाय की दुकान खोलकर बैठना ज्यादा बेहतर होगा"

बात यहीं ख़त्म हो जाती तो शायद मुझे आसानी से नींद भी आ जाती, लेकिन जनाब बात यहाँ से तो शुरू होती है। भारत को सोने की चिड़िया सिर्फ इसलिए नहीं कहा गया है क्योंकि यहाँ पर अपार धन के साधन हैं बल्कि इसलिए भी कहा गया क्योंकि यहाँ के लोग दिल के बड़े जानदार और रोचक होते हैं। लेकिन आज स्थिति उलट पड़ती दिखती है। अम्मी कि एक बात याद आ गयी सोचा आपको भी बताता चलूँ। अम्मी हमें अक्सर कहा करती थी कि " दिल्ली दिलवालों की, मुंबई पैसेवालों की और कलकत्ता कंगालों की " तब अपने भाई बहनों में मैं सबसे पहले अम्मी से पूछा करता था दिल्ली दिलवालों की कैसे है अम्मी? ज़ेहन में दिल्ली पर ही सवाल क्यों आता था क्योंकि मुंबई में पैसे वाले लोग रहते हैं और कलकत्ता गरीबों का शहर है समझ आता था लेकिन दिल्ली दिलवालों की यह बात समझ ही नहीं आती थी। तब अम्मी बताया करती कि दिल्ली में लोग बड़े प्यार से बात करतें हैं वहां बात की ही अहमियत होती है। मैं कुछ और पूछना शुरू करता तबतक अम्मी कहतीं दिल्ली बहुत दूर है बेटा चुप से अपनी पढाई पर ध्यान दे। पिछले चार सालों से जब से दिल्ली की खा रहा हूँ तब से अम्मी वाली " दिल्ली दिलवालों की " को ढूंढ रहा हूँ, पर वो दिल्ली जाने क्यों मुझे आने से पहले ही बिला गयी या कभी थी ही नहीं?

कबड्डी जितना प्राकृतिक खेल है अपने को चुस्त दुरुस्त रखने का लोग इसे उतना ही अपनाने से क़तरा रहे हैं। वजह साफ़ है जिस चीज़ के पीछे दुनिया भाग रही है वही चीज़ इस खेल में नदारद है, आपने सही पहचाना आपके तशरीफ़ के साथ लटक रहे पर्स में हरे रंग वाले कागज़ जिसमें राष्ट्रपिता बापू भी होंगे की बात कर रहा हूँ। आज न तो दिल है और न ही कबड्डी। मैं आप सबों के लिए दिल कबड्डी ब्लॉग में हर रोज़ ज़रूर कुछ नया लाने की कोशिश करूंगा। "28 जनवरी 2011 देर रात दिल्ली में "

यहाँ से ऊपर के लेख आज से तक़रीबन एक दशक पहले 2011 में लिखा गया था। मुझे सच में नहीं पता उस समय क्या सोच रही होगी और इस नाम से ब्लॉग बनाने का क्या मतलब रहा होगा? लेकिन एक चीज आपसे ज़रूर शेयर करना चाहता हूँ। धनबाद जैसे छोटे शहर से पत्रकारीता की पढाई पूरी करने के बाद दिल और दिमाग में सपनों का एक पैकेज उठाये दिल्ली आया था। उस सपने में मज़ेदार चीजें थी, अपने आपको टीवी स्क्रीन पर दिखना किसी बड़े ब्रांड का पट्टा लटकाये मंत्रियों और अलग अलग सितारों का इंटरव्यू और फिर किसी दिन दोस्तों और घरवालों से तारीफों का पुल। पीटीसी की शुरुआत या अंत किसी शायरी से करना और लोगों के दिल को मोह लेना। लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं है जितना आपको चमकते स्क्रीन पर दीखता है। इसके पीछे की मेहनत और लगन को किसी भी मायने में नाकारा भी नहीं जा सकता। इसमें एक ख़ास बात और है जो समझना ज़रूरी है, अगर आपने गिने चुने नामी ग्रामी संस्थानों से पढ़ाई की है आपकी अंग्रेज़ी और पहुँच दोनों मजबूत है तब तो समझिये आपकी नौकरी पक्की है। छोटे शहरों और कस्बों से आनेवाले लोगों के लिए ये लड़ाई बहुत मुश्किल भरा होता है, इसका सीधे सीधे अंग्रेजी और पहुँच की मानसिकता से सम्बन्ध तो है ही लेकिन इस बात को समझने की भी ज़रूर है कि छोटे संस्थानों में न तो वो इंफ़्रा है न ही आपको वो एक्सपोज़र मिल पाता है जिसकी आवश्यकता पड़ती है बड़े चैनलों में सेलेक्ट होने के लिए।

लेकिन आजकल इन सब के अलावा और भी महत्पूर्ण पहलू हैं, जैसे कि ज़्यादातर न्यूज़ चैनल मालिकों ने खुद के पत्रकारिता संसथान खोल रखें हैं जिसकी फीस ग़रीब परिवारों के पहुँच से दूर है। ऐसे में वहां पढ़ाई करने वाले छात्रों को ज़्यादा अवसर मिलता है न कि बाहर के छात्र को। व्यवसाय के इस रूप में छोटे शहरों कस्बों से आनेवाले कमज़ोर तपके के बच्चों के लिए प्लेसमेंट को और भी मुश्किल भरा बना दिया है।

इस वेबसाइट को लाने का मक़सद है, हम हर उन लोगों को अपनी लेखनी और रचनात्मकता को प्रकशित करेंगे ताकि वो उनकी डायरी या दिमाग़ के किसी कोने में आकार लेकर बैठे-बैठे धूमिल न हो जाए। हमारी कोशिश होगी कि उसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए। देश के कोने कोने में पसारा जाए।

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