
- मोहम्मद असलम
- 29 Aug 2020
- 1M
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IMPORTANT NOTICE -राजनीति के चक्कर में.......
"IMPORTANT NOTICE -राजनीति के चक्कर में आपसी सम्बन्ध बर्बाद न करें। अगर आपका कोई साथी आपसे अलग विचारधारा रखता है तो इसका कत्तई ये मतलब नहीं कि वो विद्रोही है। जब किसी को खून की जरूरत होती है तो शायद ही किसी पार्टी का नेता खून देने जाता हो लेकिन आपका दोस्त जरूर जायेगा। जो आपके लिए खून दे सकता है उससे राजनितिक बात पर बहस न करें। कहीं ऐसा न हो आप तर्क तो जीत जायें और सम्बन्ध हार जायें। धन्यवाद " -व्हाट्सएप्प मैसेज-
इस मैसेज को बार-बार पढ़ें और सोचें कि पिछले सालों में आपने तर्क जीतें हों और दोस्त हारें हों। भाषाई गिरावट आई हो, सोशल मीडिया पर वर्षों पुराने दोस्त को ब्लॉक या अनफ्रेंड किया हो। बड़े बुज़ूर्ग के लिए इज़्ज़त ख़त्म किया हो, किसी महिला के लिए अभद्र हो गए हों। पड़ोसी से बहस पड़े हों या किसी जाननेवाले से दुरी बनानी शुरू कर दी हो। किसी के लिए नस्लभेदी बन गए हों या किसी को उसकी औकाद दिखाया हो।
हम बड़े अजीब हैं लेकिन राजनीतिक दलों के ऐसे चाहने वाले हैं कि आपसी डोर तक काटना पसंद कर देते हैं। और यह सब इसलिए करते हैं कि ताकि उस ख़ास विचारधारा का वाहक बने रहें। वही राजनीतिक दल ट्रोल आर्मी की फ़ौज़ खड़ा करतें हैं ताकि विरोधियों को गरियाया जा सके। धमकाया जा सके। इतनी चतुरता से आपके स्मार्टफोन एप्प के ज़रिये आपके घर घुस जाता है कि आप उसको सच और जीवन का हिस्सा मानने लगतें हैं।
यह मैसेज मुझे मेरे एक अच्छे साथी ने व्हाट्स पर भेजा है। कम से कम मेरे लिए तो यह कोई आम व्हाट्सएप्प मैसेज की तरह नहीं है। यही वजह है कि इसपर लिखना और आपलोगों के साथ साझा करना मुझे ज़रूरी लगा पिछले कुछ सालों में ऐसा क्या हुआ कि आज हमलोगों को इस तरह के मैसेज शेयर करने पड़ रहें हैं ? हुआ है हिमारें अंदर कड़वाहट बढ़ गई है। हम हर चीज को धर्म से जोड़कर देखने लगें हैं। जो कभी बहुत अच्छा इंसान कहलाता था आज वो खोट से भरा दिखने लगा है क्योंकि वह हमारी विचारधाराओं से सहमति नहीं रखता।
पिछले साल जब मैंने एक सिख परिवार के लिए रक्त दान किया तो विश्वास मानिए अंदर का इंसान बड़ा प्रसन्न हुआ और आगे भी ऐसा करने के लिए उत्साहित किया। ख़ुशी के मारे उस चीज को मैंने एफबी पर शेयर भी किया था।
हम डिजिटल हो भी गए और आपसी सम्बन्ध को बनाये नहीं रख पाए तो क्या फायदा ? अभी एक खबर छपी थी अखबार में की एक एनआरआई दम्पति के माँ की लाश उसके कमरे से हफ्ते भर बाद निकाली गयी क्योंकि उनके साथ कोई रहता नहीं था जिसके वजह से मौत के वक़्त न तो उनके साथ कोई था और न ही उन्हें मदद पहुँचाई जा सकी। कितना हास्यास्पद है न ? जिस ऐशो आराम मॉडर्न ख्वाहिशों के पीछे हम भागम भाग करतें हैं, वो धरा का धरा रह जाता है। उस धन कमाई का कोई मतलब नहीं रह जाता और कोई अपना हमेशा के लिए चला जाता है।
जो लोग मेट्रोपॉलिटन सिटी में रोज़गार के लिए रहते हैं , उनमें से ज़्यादातर लोगों का न्यूक्लियर परिवार है। महानगर में एकल परिवार का चलन है इसके पीछे मैं सामाजिक और वैज्ञानिक कारण भी देखता हूँ, छोटा परिवार का होना मतलब महँगे शहर में टिके रहना। यानि खर्चे किफायती रहे और ऐशो आराम के लिए दौड़ती-भागती ज़िन्दगी के सामानांतर बने रहा जा सके।
ऐसे में ये बड़ा ज़रूरी है कि हमारे पैर ज़मीन पर टिके रहें और आपसी संबंधों की डोर को मजबूती से पड़के रहे।यह भी सच है कि जिस सोशल मीडिया ने हमें छिछला बनाया है उसी सोशल मीडिया पर दोस्तों की अच्छी संख्या बनी रहे। वास्तविकता में न सही वर्चुअल दुनिया में ही सही। क्योंकि सोशल मीडिया अकेलापन दूर करने का एक अच्छा माध्यम बन गया है, जबकि इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता की यही आदत एक दिन उसे वास्तविक दुनिया से दूर कर देगा। आज हम में से बहुतों ने उस जाल को महसूस करना शुरू भी कर दिया है। यह कड़वा है पर सच है।
लेखक के बारे में
मोहम्मद असलम, पत्रकारिता से स्नातक हैं। सामाजिक घटनाक्रम और राजनीतिक विषयों में रूचि रखतें हैं। इनके ज्यादातर लेख सोशल मीडिया घटनाक्रम पर आधारित होतें हैं। इसके साथ ही एमबीए डिग्री धारक हैं और एक निजी बैंक में सीनियर मैनेजर के पोस्ट पर कार्यरत हैं।
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