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"पार्टी प्रवक्ता" यानि स्पोक्स पर्सन, आजकल करीब हर राजनीतिक पार्टी ने अपना एक वक्ता अपॉइंट किया हुआ है जो कि सिर्फ बकता है। "डिबेट" डायबिटीज बन चूका है। डिबेट का असली मकसद आपस में मिलकर किसी समस्या पर स्वस्थ तरीक़े से हल निकालना था लेकिन पता ही नहीं चलता कब ये आपस में ही " तू-तड़ाक" पे उतारू हो जाय।  अच्छा चैनल वाले पैनल भी वैसा ही चुनते है जिसमें कि साँप और नेवला आमने-सामने हो ताकि ज़हर बराबर मात्रा में उगले। कम से कम चार सदस्यो की टीम चुनी जाती है, जो कि व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी से सम्बन्ध रखते हो, और इनका सेक्स से लेकर शेक्सपीअर तक का ज्ञान हो। 

फिर बीपीएल वाले देश में आईपीएल पे चर्चा शुरू होगी और चीन, पाकिस्तान हालांकि एक ही बात है होते हुए गाय-गोबर तक आते-आते उग्र हो जाते हैं।  टीवी एंकर अपने पास पेट्रोल और माचिस दोनों रखते हैं ताकि ज़रुरत पर हड़काने और भड़काने के काम आए। राष्ट्रीय हित डिबेट के पश्चात आपको राष्ट्रीय भक्ती  सर्टिफिकेट भी तुरंत वितरित कर दिया जाता है।  लेकिन असल मुद्दे पर कोई बहस नहीं, बेरोजगारी का आलम ये है कि आदमी को केवल  ओवरटाइम के पैसे मिल रहे है और मूल वेतन कट है, फिर भी मीडिया अपना रोजगार चमकाने में लगी है। कोरोना के तो कान तरस गए होंगे, शायद  कोने में बैठा कोस  रहा है खुद को कि पहले इतना धूम धड़ाका और अब सब फुस्स, डीजल आजकल पेट्रोल को आंखे दिखा रहा है भाई अपनी भी कुछ इज़्ज़त है। शिक्षा व्यस्था तो आप बुक कि बजाय ऑनलाइन फेसबुक से ले सकतें हैं।  स्वच्छ जल तो आप को भरपूर मात्रा में इन दिनों बिहार और यूपी में बाढ़ के रूप में उपलब्ध है। मेडिकल ब्यवस्था भी चल ही रही है प्राइवेट ओपीडी में दर्शन की जगह केवल आशीर्वाद मिल रहा है और  महंगा तो सिर्फ ज़मीर हुआ है जी जिसमें नेताजी कभी शामिल नहीं होते....

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