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निजी टीवी पत्रकारिता ने एक अजीब रूप धारण कर लिया है। जब ये शुरू-शुरू में आया और लोग के लिए नया-नया माध्यम बना, तब कौए , सांप और बिच्छू तक को दिखाया गया। हमने भी बड़े चाव से देखा। टीवी समाचार में काम कर रहे लोगों को उनकी सफलता दिखी इसमें। मालिक की वाह वाही तो सफलता में रहती ही है चाहे वो गंजा खुद कंघी खरीदे या उसको ये बोलकर बेच दिया जाय कि इसको चिकने सिर पर दिन में सात बार फेरने से केश निकल आएंगे।

फिर बिना ड्राइवर के चलते कार को दिखाया गया, हमने उसे भी किसी चमत्कार के माफ़िक देखा। चैनल का मालिक और खुश हुआ फिर ऐसी उलूल जुलूल विषयों का ट्रेंड चल पड़ा। फिर दक्षिण एशिया के लोगों की समझ और भावना को ध्यान में रखकर धर्म की दुनिया का शैर कराया गया और इसके तहत स्वर्ग की सीढ़ियां दिखाई गई।

फिर आया शमशान और कब्रिस्तान का जहाँ पर ये जाकर भूतों को चुनौती देते रहे। विश्वास मानिए ज़्यादातर एंकर और रिपोर्टर जो ये कर रहे थे वो बिलकुल तांत्रिक की भूमिका में फिट बैठते हैं।

हम में से बहुतों ने हाथ जोड़कर अच्छे शिष्य की तरह देखते रहे। टीवी चैनल वाले हमारी देखने की क्षमता को अलग-अलग वक़्त पर नायाब वस्तुओं और मिथ्या से मापते रहे। हम उनके सामने खुद को सरेंडर करते रहे।

चैनल के लोगों और उनके मालिकों की तारीफ़ तो बनती ही है उन्होंने हमलोगों को बोर नहीं होने दिया। हर बार कुछ नया लेकर आते रहे। बस वो काम नहीं किया जो पत्रकारिता को करनी चाहिए। चौथे पिलर तो बने रहे लेकिन ये चौथा पिलर बोझ उठाए खड़ा है या उस तामिर को गिराने पर अड़ा है ये नहीं समझ आता।

कोई तो है जो हमारे ख्यालों से अवगत कराता रहता है, नहीं तो इन्हे कैसे पता की अब लोग सांप कौए से ऊब गए हैं इसलिए हिन्दू बनाम मुस्लिम दिखाइए। ये बिलकुल यॉर्कर बॉल पर छक्के की तरह साबित हुआ, सदियों से चली आ रही हिन्दू मुस्लिम परम्परा जो किसी कोने में बैठी दबी होती थी को जब लोगों ने चमकते स्क्रीन पर देखा तो और भी मदमस्त हो गए। इस मुद्दे में जान आ गयी और फिर लोग साबित करने में लग गए की किसका खानदान मुग़लों का है और किसका लुटेरों का।

क्योंकि ऊपर के सारे विषयों में सबसे हिट है इसलिए ये अभी जारी है और ऐसा लगता है कि जारी रहेगा।

बात यहीं ख़त्म नहीं होती। मनुष्य में आलस अपना पैर जमाए सोया रहता है, जो किसी भी वक़्त जाग जाता है। इसका भी खूब फायदा उठाया निजी चैनल्स ने। हमारी आदत को ऐसे बिगाड़ते गए की हम किताबों से दूर होते गए और जो चैनल पर आता रहा उसी को अपना रिफरेन्स बुक बनाते रहे। इसमें झूठ का ऐसा मसाला मिला होता है कि यह हमे तथ्य से परे अपने चटकारे स्वाद से छलता रहता है।

अच्छा पिछले साल जब एक टीवी पत्रकार को मैग्सेसे अवार्ड से नवाज़ा गया तो बाकियों ने उसे दिखाना उतना भी उचित नहीं समझा जितना दो हज़ार के नोट वाले चिप को समझा था।

टीवी वाले लोग यहाँ भी नहीं माने, इनके कानों में फिर किसी ने फुसफुसाया और अब ये सरकार का दूसरा रूप बन गए हैं। भारत में अगर आपको वर्तमान स्तिथि में सरकार की कामयाबी को देखना है तो सरकारी रिपोर्ट को बिलकुल न देखें बल्कि निजी चैनल्स देख लें।

भारत में आज भी पढ़ाई का रूप बहस का विषय है ऐसे में शिक्षा दर से मात्र ये नहीं समझा जा सकता की असल में शिक्षित लोग हैं कौन। लेकिन इन चैनल्स ने हमारी कमजोरी का खूब फायदा उठाया और जितना सत्यानाश किया शायद उसकी भरपाई मुश्किल है।

ऐसे में ज़रूरी है कि हमलोग पढ़ने की आदत को अपने रोज़मर्रा में शामिल करें नहीं तो ये चैनल और चीख़ते एंकर ये साबित कर देंगे की हमारा भगवान भी दो है और बन्दर तो बन्दर ही रहेगा

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