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कोरोना संकट के दौर में भारत के किसी राज्य में होनेवाला ये पहला चुनाव है। तीसरे और आख़री चरण का मतदान अभी पूरी तरह से ख़त्म भी नहीं हुआ था कि टीवी चैनल्स ने एग्जिट पोल का भोपू बजा दिया।  भोपू ऐसा कि चुप होने का नाम ही न ले।  पहले बताते रहे कि किन-किन मुद्दों को आधार बनाया गया फिर उसपर प्रतिक्रिया भी लेते रहे। बेचारे प्रवक्ता मानों किसी कि शादी में बैंड बाजे वाले की भूमिका में आएं हों।  बजईया गवैया कि तरह।  जब बोला जाए बोलो तब जल्दी जल्दी शुरू हो जाए बात पूरी किए बगैर एंकर फिर चुप करवा दे फिर बेचारा चुप।  एंकर बिल्कुल शातिर तरीके से अपने मनपसंद के जवाब मांगते रहे। वैसे प्रवक्ता भी कम शातिर नहीं होते हैं प्रश्न का विषय कुछ भी हो अपने बाउ की तारीफ़ किये बग़ैर ख़बरदार जो बाईट ख़त्म कर दे।  आख़िर हाजिरी भी तो लगानी पड़ती होगी।  

घंटो बाद एग्जिट पोल का असली मुद्दा रंगीन स्क्रीन पर दिखना शुरू हुआ तो पता चला तेजस्वी तो सधे हुए नेता निकले।  एकदम आगे-आगे बिहार के जिस भी हिस्से को खंगाला गया वहां से तेजस्वी की तस्वीर निकली।  सबको जमा किया जाए तो वो इतने हैं कि तेजस्वी बिहार का ताज़ पहन सकतें हैं।  ऐसा लगा कि लोगों पर नितीश का वो आख़िरी चुनाव वाला भावनात्मक अपील भी असर नहीं छोड़ पाया बल्कि उल्टा ही पड़ा।  क्योंकि उसी के बाद से तेजस्वी के उस बात को बल मिलने लगा जिसमें वो वर्तमान के मुख्यमंत्री को थका-हारा हुआ साबित करने की कोशिश करतें रहें हैं।  

प्रधानमंत्री मोदी का वो भाषण भी एग्जिट पोल में फल देता हुआ नहीं दिख रहा है जिसके माध्यम से उन्होंने युवाओं के खून को गरमाने की कोशिश की और ये बताए की "जय श्री राम" और "भारत माता की जय" से किसको परहेज़ है यानि मुद्दों कि बात न करके युवाओं को बरगलाया गया।  जो युवा रोजगार मांग रहें हैं उन्हें प्रधानमंत्री नारा देने कि कोशिश में दिखे।  झारखण्ड चुनाव में भी दंगाइयों को उनके कपड़े के रंग से पहचानने कि बात करते दिखे थे। ऐसे में तेजस्वी ही मात्र नौजवानों के नब्ज़ को पकड़े हुए दिखे और दस लाख नौकरियों और विकास की ज़बस्दस्त गाँठ से इन बड़े कद्दावर नेताओं को बाँधे रहे।  

अगर एग्जिट पोल रिजल्ट में तब्दील होता है फिर तो इन्हे भी मानना पड़ेगा कि पकौड़े वाला रोजगार से जनता खुश नहीं है उन्हें सच में उनके मुताबिक वाला काम चाहिए। दूसरी बात जो ट्रीटमेंट प्रवासी मजदूरों को तालाबंदी के दौरान दिया गया उसने भी वर्तमान सरकार कि दावेदारी को कमज़ोर किया है।  वो अलग बात है कि ऊपर के मुद्दे से अगर ये बड़े नेता सहमत नहीं हैं फिर वैसे में किया भी क्या जा सकता है ? आखिर ट्रम्प भी तो हार नहीं मान रहें हैं वो अलग बात है की टाइम स्क्वायर पर लोगों के हुजूम ने साबित कर दिया कि ट्रम्प से नाराज लोगों की संख्या खुश लोगों से कहीं ज्यादा है।  

नितीश को ये ज़रूर आत्ममंथन करना पड़ेगा कि क्या लैंडलॉक स्टेट के युवा रोजगार के लिए बाहर ही जाते रहेंगे कि कोई विकल्प निकाला जा सकता है।  साथ में ये भी क्या सारे खाली पड़े सरकारी पद भर दिए जाएं तो क्या उन्हें मासिक तनख्वाह भी नहीं दी जा सकती अगर हाँ तो आपका सर शर्म से झुक जाना चाहिए कि 15 सालों के शासन के बाद भी राज्य का ये हाल है।  और इसके लिए बिना शक सूबा के आप ही जिम्मेदार हैं।  

महगठबंधन की जीत बड़ा सन्देश भरा हो सकता है जिसका चेहरा तेजस्वी हैं, अगर 32 साल का नौजवान विकास और रोजगार को मुद्दा बनाना चाहता है तो गद्दी पर बैठे बूढ़े शेर क्यों नहीं आखिर कबतक मृगतृष्णा के पीछे जनता को भगाते रहेंगे। आखिर कबतक पाकिस्तान को चुनावी भाषणों में शामिल करते रहेंगे। आख़िर कबतक युवाओं को खोखला नारा देते रहेंगे। दस तारीख़ तेजस्वी के पोलिटिकल करियर का सबसे बड़ा दिन साबित हो सकता है और नितीश कुमार के लिए एक ऐसा दिन जो जीवन भर उन्हें याद दिलाता रहेगा कि वो सुशासन बाबू कम और मौकापरस्त ज्यादा रहें हैं।  नहीं तो  2015 में ही जनता ने इनके विकास और सुशासन से ऊबन महसूस करना शुरू कर दिया था।  

 

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