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दोपहर का समय है। एक प्राइवेट हॉस्पिटल के "लेबर रूम" के सामने बैठे-बैठे बस यही इंतज़ार कर रहा हूँ कि दरवाज़ा खुले, नाम पुकारा जाए और ख़ुशख़बरी सुनाई जाए। एडमिशन को लगभग 18 घंटे होने को हैं। इस दौरान फोन ने बखूबी साथ निभाया है और लगभग सभी क़रीबियों को इत्तला कर दी गई है कि जल्दी ही खुशख़बरी आनेवाली है। आपलोग भी ईश्वर से प्रार्थना करें की सब बढ़िया रहे। इस बीच जो दर्जनों कॉल्स किए गएँ हैं उसके विश्लेषण को आप हास्यास्पद भी बोल सकतें हैं और जड़ता भी।  विषय की गंभीरता भी बोल सकतें हैं और मन बहलाने का बहाना भी।जो नजदीकी रिश्तें हैं उसपर बात पूरी किये बगैर उधर से सुनने को मिला "बताओ बेटा होगा या बेटी"  जब भी जवाब दिया की इससे क्या फ़र्क पड़ता है तो उधर से ज्वाब आया नहीं मैं शर्त लगाता हूँ बेटा होगा। इसमें बुराई मत देखिये अगला आपको एडवांस में ख़ुशियों से भर देना चाहता है,अपने मुताबिक़।  बेटा होना इस समाज में बड़ी बात है।  बड़ी ख़ुशी की बात है।  सच कहें तो इसमें लालच छिपा है, जो जेल भी भेज सकता है और वृद्धा आश्रम भी।  कुछेक वैसे भी मिलेंगे जो आपको आपकी पौरुष पर मूँछे फिरवा देंगे और उनका फ़ोन पर कुछ ऐसा रिएक्शन रहेगा अरे हमारा भाई शेर है बीटा ही होगा बेटा।  

डॉटर्स यानी "बिटिया/ बेटियाँ" पर लोगों के विचारों में बड़ा विभाजन है। आपको विरले ही वैसे लोग मिलेंगे जो खुलेआम यह बोले की बेटी बोझ है या वो बेटी नहीं चाहता।  लेकिन उसी के घर में जब गर्भ धारण की खुशख़बरी मिलती है तो वही व्यक्ति "रंग बिरंगे" हट्टा-कट्टा ख़ूबसूरत "बेबी बॉय" की दर्ज़न भर तस्वीरों से माँ बनने वाली महिला के कमरे को सजा देता है।  आपने शायद ही देखा होगा की बेटियों की तस्वीरें लगाई गई हो।  ऐसा नहीं है की मिलता नहीं बल्कि लोग लेना नहीं चाहते।  ज़्यादातर लोगों का ऐसा मानना है कि गर्भवती महिला द्वारा ख़ूबसूरत तस्वीर को  देखे जाने से न सिर्फ होनेवाला बच्चा ख़ूबसूरत होगा बल्कि लड़का ही होगा इसकी भी भावनाएं बढ़ जातीं हैं। आपको इसमें  रूढिवादिया दिखती होगी लेकिन कभी ऐसे परिवारों में लकड़ा यानी बेटा पाने की चाहत  की गहराइयों को मापने की कोशिश कीजियेगा। आप भी ग़ुम हो जायेंगे लेकिन चाहत का पैमाना नहीं मिलेगा। 

पिछले दिनों मैंने ख़ुद "बेबी शॉवर" यानी  गोद भराई की रस्म में कुछ ख़ातून को फुसफुसाते सुना की पोस्टर तो देखो बेटियों की तस्वीर लगा रखी है।  बड़े मॉड बनते हैं  हाहाहाहा। ये बातें किसी पुरुष की होतीं तो शायद उतना आश्चर्यचकित नहीं करता लेकिन खुद एक बेटी दूसरे बेटी के लिए कहे तो अजीब लगता है।  भारत में बेटियों के सवाल पर ये वाली कहावत सटीक लगती है।  "भगत सिंह आये ज़रूरआये लेकिन पड़ोस में" मेरे घर नहीं।  बड़ी अजीब है न।  

चलिए आगे बढ़तेँ हैं कितने घरों में आपने माँ की लाडली बेटी देखा है हाँ बाप की लाडली बेटी तो बड़ा सामान्य है।  

ऐसा भी नहीं है कि महिलाएँ ही नहीं चाहती की बेटी के बजाए बेटा हो।  हम मर्दों ने भी बड़ी अहम् भूमिका निभाई है इसमें। हमारे गुस्सैल और खुंखार रूपों ने महिलाओं में एक ऐसी परत बना दी जिससे वो भी बेटों को तरज़ीह देने लगे। कहावत तो सुनी ही होगी आपने "हाथी के दाँत दिखाने को और खाने को और" समझिए खुलेआम बेटी न पाने की चाहत दिखाकर बदनामी थोड़े न अर्जित करना है साहब। बेटियों को बड़ा अजीब लगता होगा न जब सुनती होंगी की बेटा बुढ़ापे का सहारा होता है। ऐसे में डॉटर्स डे का महत्त्व बड़ा बढ़ जाता है।  हमने जैसे "वेलेंटाइंस डे" को हाथों हाँथ लिया और बिल्कुल गंभीरता से पूरा सप्ताह उसके नाम कर दिया वैसे ही डॉटर्स डे पर काफ़ी कुछ करने की ज़रुरत है। 

भारत में हर साल सितम्बर के आख़िरी इतवार को "डॉटर्स डे" मनाया जाता है।  क्या भारत में डॉटर्स डे मनाये जाने की ज़रुरत है? ये बड़ा विवादास्पद प्रश्न हो गया। आप लाल आँखों से घुर्राते हुए पूछ सकतें हैं कि आप  कौन ? वेलेंटाइन्स डे मनाये तो दिक़्क़त और अब डॉटर्स डे पर भी दिक़्क़त।  मेरे ख्याल से डॉटर्स डे मनाये जाने की ज़रूरत है वो भी सिर्फ़ ट्विटर और फेसबुक पर नहीं बल्कि खुलेआम गली-मुहल्लों में, सड़क-चौराहों पर। ढोल-नगाड़ों और पुरे हर्षोल्लास के साथ।

गुज़रे वक़्त में हमारी सरकारों ने बेटियों के महत्त्व को प्रचार-प्रसार के माधय्म से काफ़ी समझाया भी है। कानून भी बनाए गए जिससे बेटियों को संरक्षण दिया जा सके और इसका असर समाज में होनेवाले भेद भाव  को कमतर किया जा सके। वो अलग बात है कि सरकार ही सच में बेटियों को कंधे से कन्धा मिलकर चलना देखना नहीं चाहती नहीं तो आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी डॉटर्स डे सर्फ किसी ख़ास वर्ग का हिस्सा बनकर थोड़े न रह जाती।  

हममें से काफी वैसे भी होंगे जो अब भी बेटे के इंतज़ार में इतना बड़ा परिवार बना लिया होगा कि संभाला न जाए।  डॉटर्स डे पर उनको भी बधाई।

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