
- मोहम्मद असलम
- 01 Sep 2020
- 3M
- 2
कद छोटे, काम बड़े: "भारत रत्न" प्रणब मुखर्जी का निधन और सोशल मीडिया रिएक्शन
"भारत रत्न" प्रणब दा अब हमारे बीच नहीं रहे। 11 दिसंबर 1935 को अब के पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के मिराती गॉव में जन्मे पूर्व राष्ट्रपति किसी पहचान के मुहताज तो नहीं, लेकिन वर्तमान स्तिथि में उनके निधन पर जो सोशल मीडिया रिएक्शन है उसपर प्रकाश डालना ज़रूरी है।
प्रणब मुखर्जी और दिल्ली में बड़ा गहरा सम्बन्ध रहा है। यहाँ दिल्ली से मतलब ताक़त और राजनीति का केंद्र "दिल्ली" है। उनके जीवन काल का आप विवरण करेंगे तो आपको हर बार दिल्ली घूमकर आना पड़ेगा। पाँच फ़ीट कद के प्रणब दा भले अच्छे से हिन्दी न बोल पाते थे लेकिन अंग्रेजी पर ज़बरदस्त पकड़ थी और उनके विचारों में बड़ी सफाई थी। कांग्रेस के संकट मोचक भी आप बोल सकतें हैं। ऐसे व्यक्ति जिनकी राजनीतिक और आर्थिक समझ का कायल अनेक देशों के प्रमुख रहें हैं और अलग अलग वक़्त पर सराहा भी है।
आज के तारीख़ में दिनों -दिन आपको पता चल जाता है कि किसी ख़ास विषय से लोगों का कितना जुड़ाव है या लोग उसे कितनी अहमियत देतें हैं। नैशनल हेराल्ड के एक रपोर्ट के मुताबिक़ कुछ ही घंटे में हैदराबाद एनकाउंटर पर 4 लाख ट्वीट्स किए गए थे। लोगों ने अपने व्हाट्सएप्प स्टेटस लगा लिया था और पुलिस के पक्ष में फूल बरसाए जा रहे थे। कुछ यही हाल विकास दुबे एनकाउंटर मामले में था। सुबह उठते व्हाट्सएप्प और फेसबुक विकास दुबे एनकाउंटर पर खुशी और सवाल उठाने वाले सन्देशों से अटा पड़ा था। किसी ने जातीय कोण से देखा तो किसी को इसमें पुलिस की बहादुरी दिखी। किसी को ताक़तवर राजनीतिक फैसला दिखा और किसी को सच्चाई पर मिटटी डालने वाली मनगढंत कहानी।
तालेबंदी के दौरान जब मोदी ने लोगों से दिया और मोबाइल टोर्च जलाने की अपील की तब भी लोगों का यही रिस्पांस था। दिया जलाये जानेवाले दिन सोशल मीडिया पर जलती मोमबत्ती और मोदी की तस्वीरों का मानो सैलाब आ गया हो। कोई शायद ही ऐसा व्हाट्सएप्प कॉन्टैक्ट रहा होगा जिसके स्टेटस में जलते दिया या मोमबत्ती न दिखा हो। लोगों ने डीपी तक बदल डाला।
इसमें कुछ हास्यास्पद है भी नहीं, भारत के प्रधानमंत्री होने के नाते उनके पक्ष में समर्थन जायज़ दीखता है। लेकिन इन सबसे से अलग नौजवानों की अपनी सोच उतनी मजबूती से सामने आते नहीं दिखती ? ऐसा प्रतीत होता है मनो भेड़ चाल हो ? विषय की गंभीरता और उसके प्रभाओं का आकलन किये बगैर लोगों में भीड़ का हिस्सा बन जाने का होड़ सा मच जाता है। ऐसे में कभी-कभार आप असहमति रखते हुए भी ये नहीं पता कर पाते की सही क्या है और ग़लत क्या ? अगर लोगों के समर्थन को आप मापदण्ड बनाते हैं तो आप ठगे हुए महसूस करेंगे और अगर आप उसी भीड़ का हिस्सा बन जातें हैं तो ऐसा लगेगा की बाकी चीजों का क्या ? ज़मीनी सच्चाई का क्या ? कानून का क्या ? संविधान का क्या ?
यही हाल सुशांत सिंह राजपूत के दुःखद फांसी लगाने वाली खबर के बाद था। सोशल मीडिया पर उनके कामों को याद किया जाने लगा। अफ़सोस भरे सन्देश का दौर चला। फिर सवालों का दौर की फांसी किसी साजिश का हिस्सा तो नहीं? फिर बिहार सपूत चला और फिर ख़ानों की साज़िश। जैसे इस मामले में रिया चक्रवर्ती का नाम आया तब भी लोगों का उसके ख़िलाफ़ सन्देशों का बाढ़ सा आ गया। अश्लीलता और अमर्यादित भाषा जो दिखी वो तो अलग है।
ऊपर की सारी घटनाएँ हालिया दिनों की है।
कल जब पूर्व राष्ट्रपति और भारत रत्न प्रणब मुखर्जी ने आखरी सांस ली तब लग रहा था कि उनके व्यक्तित्व और महत्वपूर्ण योगदानों को देखते हुएव्हाट्सएप्प, फेसबुक और ट्विटर पर कुछ ऐसा ही होगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मेरे मोबाइल में एक हज़ार के करीब कॉन्टैक्ट्स हैं लेकिन दर्ज़न भर भी व्हाट्सएप्प स्टेटस प्रणब दा को लेकर नहीं था।
वो सिर्फ एक कांग्रेसी नहीं थे। बल्कि वे भारत के सच्चे सपूत थे। प्रणब दा तो उस लिस्ट में शायद पहले इतने बड़े व्यक्तित्व हैं जिन्होंने ने RSS के नागपुर मुख्यालय में संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समारोह को सम्बोधित करने गए। जबकि कांग्रेस किसी भी हाल में ऐसा नहीं चाहती थी। लेकिन कल के सोशल मीडिया रिएक्शन से ऐसा लगता है कि वो इन सब के बावज़ूद कांग्रेसी बनकर रह गए।
भारत सरकार में प्रधानमंत्री पद के अलावा कोई ऐसा महत्वपूर्ण पद नहीं रहा जिसको प्रणब दा ने संभाला न हो। 1969 में राज्य सभा के सांसद चुने गए। 1980 में राज्य सभा सदन के नेता चुने गए। 1991 में योजना आयोग के डेप्युटी चेयरमैन बनाये गए। 2004 में पहली बार लोक सभा चुनाव जीत कर आये और फिर "लीडर ऑफ़ दी लोक सभा" बनाये गए। फिर 2004 में ही रक्षा मंत्री पद का दारोमदार संभाला। 2006 में विदेश मंत्री और 2009 में भारत के वित्त मंत्री। ये सारे पद उनको इसलिए दिए गए क्योंकि उनकी चीजों पर बारीक़ समझ थी, कांग्रेस के पास एक अच्छा विकल्प थे। जुलाई 2012 में भारत के "प्रथम नागरिक" के पद यानी राष्ट्रपति का गौरवपूर्ण ओहदा मिला। वहां भी उनकी समझ और साफ़गोई दिखी। भले ही वे न तो ए पी जे अब्दुल कलाम की तरह लोगों के राष्ट्रपति बन पाए लेकिन उन्हें कोई रब्बर स्टम्प राष्ट्रपति भी नहीं बोल पाया।
2019 में केंद्र की मोदी सरकार ने प्रणब दा का नाम भारत रत्न के लिए चुना। यह एक ऐसा सधा हुआ तीर था जिसने कांग्रेस की छवि पर सीधे वार किया। खासकर बंगालियों के दिलो दिमाग में। बंगाल आज भी बीजेपी के महत्वपूर्ण अजेंडे में है और किसी भी हालत में वहाँ की सत्ता चाहती है। कांग्रेस चारो खानों चित्त दिखी,वो और करती भी क्या ?
लेखक के बारे में
मोहम्मद असलम, पत्रकारिता से स्नातक हैं। सामाजिक घटनाक्रम और राजनीतिक विषयों में रूचि रखतें हैं। इनके ज्यादातर लेख सोशल मीडिया घटनाक्रम पर आधारित होतें हैं। इसके साथ ही एमबीए डिग्री धारक हैं और एक निजी बैंक में सीनियर मैनेजर के पोस्ट पर कार्यरत हैं।
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2 Comments
admin
Your Comment is Under Review...!!!
Harry
Nowadays Media become govt "mouthpiece"