
- मोहम्मद असलम
- 25 Aug 2020
- 1M
- 1
सोशल मीडिया बड़ा अनसोशल है
अगर आपको अच्छी वाली नींद नहीं आती, दोस्तों की फ़ेहरिस्त छोटी होती जा रही है। काम में मन नहीं लगता, दो अलग-अलग रंग के जुराबें पहन लिया और पता भी नहीं चला जबतक किसी ने टोक न दिया हो। यह सब सोशल मीडिया के साइड इफ़ेक्ट भी हो सकतें हैं। जिससे निज़ात पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन सा प्रतीत होता है। अपने आप से डेली झूठ बोलकर मन बहला सकतें हैं और अपना स्टेटस लगा सकतें हैं कि "सोशल मीडिया अकाउंट डिलीटेड" फिर पैरोडी अकाउंट बनाने का भी सोच सकतें हैं। इस लत से बचे रहना उतना भी आसान नहीं है मेरे दोस्त !
हम में से कइयों का दिन बिना व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम और बाकि के सोशल मीडिया के बगैर शायद ही बीतता होगा। मुझे अच्छे से याद है जब धनबाद जैसे छोटे से शहर से दिल्ली जैसे बड़े शहर में पलायन किया तब ऑरकुट और ई-मेल का अपना अकाउंट बनाकर ऐसा महसूस होता था मानो किसी विशेष वर्ग का हिस्सा बन गया हूँ। ई-मेल आई डी का होना ज़रूरी इसलिए भी था ताकि जब नौकरी के लिए अपनी सी वी "पढ़ाई लिखाई और कार्य का सारांश" कहीं पर दूँ तो ऐसा न लगे की मैं देहाती हूँ या पिछड़ा हुआ हूँ।
एक और बात तब घर पर कंप्यूटर या लैपटॉप तो था नहीं इसलिए जब कभी सी वी "पढ़ाई लिखाई और कार्य का सारांश" बनवाने या उसका प्रिंट लेने साइबर कैफ़े वाले भैया के पास जाता तो वो ज़रूर पूछता ई-मेल आई डी बताइये तब अगर न हो तो समझिये आपकी बेइज़्ज़ती पक्की है। वो आपको ऐसे घूरता मानो उसके सामने कोई देहाती गंवार खड़ा है और वो इंतहा मॉडर्न आदमी। तेज़ आवाज़ में ये भी बोलता कि कोई नहीं बनवा लीजिये दस रूपये ज़्यादा लगेंगे। फिर आपके मुख से "हाँ बना दीजिये" के अलावा न निकलता ही नहीं ।
बदलते दौर के साथ सोशल मीडिया ने खूब तरक़्क़ी की। नये और उन्नत किस्म के ऑनलाइन प्लेटफार्म ने लोगों को खूब आकर्षित किया। शायद यह वो दौर था जब लोग एक दूसरे से प्रत्येक दिन मिलने जुलने की सामाजिक आदत से ऊब गए हों, इसलिए दूर से (ऑनलाइन ) दोस्ती और बात चीत को बढ़ाने का सिलसीला सबको ख़ूब पसंद आया। इसका एक अच्छा उदाहरण फेसबुक है जिसकी तरक़्क़ी से आज पूरी दुनिया वाक़िफ़ है।
फेसबुक सभी भारतियों के लिए ख़ास भी है क्योंकि दशकों बाद जब भारतीय राजनीति ने करवट ली और बूढ़ी कांग्रेस सीटों के मामले में अपने उम्र के सबसे निचले पायदान पर पहुंच गई तब भारतीयों ने जिसे अपना नेता चुना वो भी फेसबुक के मालिक से जाकर मिले और खूब वाहवाही बटोरी। यह घटना सोशल मीडिया के ताक़त और अहमियत को बड़ी मजबूती से रखता है।
सोशल मीडिया प्लेटफार्म जबतक आमलोगों के लिए रहा तबतक यह प्यार, मुहब्बत और दोस्ती का कोरा काग़ज़ बना रहा। लोग जैसे चाहें वैसे अपने दिलों दिमाग़ को कीबोर्ड के द्वारा प्रस्तुत करते रहे। शुरू-शुरू में लोगों के बीच एक प्रतिस्पर्धा थी कि किसके कितने ज्यादा दोस्त हैं, जसके जितने ज्यादा वो उतना ही बड़ा सा माना जाता था। शायद यहाँ तक सोशल मीडिया ने एक अच्छी भूमिका निभाई और लोगों के दोस्ती और ऑनलाइन जुड़ने वाली भावना को बल दिया।
इसे सोशल मीडिया का स्वर्णिम काल कहें तो गलत नहीं होगा। इसपर कही जाने वाली बातों का प्रचार -प्रसार इतनी तेजी से हुआ कि लोगों की नज़र में इसकी जगह एक दुधारू गाय की तरह बन गयी। फिर क्या था दुधारू गायें भारत की आर्थिक राजनीतिक बल्कि कहें तो सामाजिक पहलुओं को रंग रूप देनेवाली जाती राजनेताओं से कैसे दूर रहता।
कॉर्पोरेट वर्ल्ड और निजी कंपनियों ने भी इस प्लेटफॉर्म का भरपूर इस्तेमाल किया। उनको प्रचार प्रसार करने का एक अच्छा प्लेटफॉर्म मिल गया और उससे होनेवाले फायदे भी किसी मायने में कम नहीं थे। फिर एक मोड़ आया जब इसको राजनितिक दलों ने अपने आचार विचार बल्कि कहें कुविचार तक फ़ैलाने के लिए इस नायाब चीज का इस्तेमाल शुरू किया। सच कहें तो तब से ही यह सोशल से अनसोशल हो गया।
राजनीति और सोशल मीडिया:- फेसबुक से पता चला कि मैं जयचंद हूँ। अगले पोस्ट से ये पता चला कि मैं मुग़ल खानदान का हूँ। अलग अलग वक़्त पर यह भी पता चलता रहा कि मैं पाकिस्तानी हूँ, कट्टु हूँ। स्वर्गीय राजीव गाँधी की तारीफ़ में एक पोस्ट फारवर्ड कर दिया तो पता चला कि सोनिया मेरी माँ है और इटली मेरा देस है।
स्वर्गीय अटल जी की तारीफ़ कर दी तो मैं काफ़िर बन गया और अधकचरा मुसलमान। इस सोशल मीडिया ने मेरे व्यक्तित्व को निख़ार दिया और मुझे अवगत कराया कि मैं प्रतिभा का धनी हूँ। जात-पात से ऊपर हूँ , मेरा कोई देश भी नहीं और मेरा कोई देस भी नहीं। अलग अलग देशों की नागरिकता क्षण भर में मिलता रहा और जाता रहा।
अख़लाक़ पर एक पोस्ट लिखा तो लोगों ने गालियां देते हुए पूछा कि कश्मीरी पंडितों पर क्यों नहीं, शिकारा की तारीफ़ की तो लोगों ने पूछा दो हज़ार दो भूल गए, फिर इन सब से छुटकारा लेकर दिल्ली वाला बनना चाहा तो लोगों ने साबित कर दिया कि मेरे में मुग़लई खून है। बड़ी मुश्किल से भारतीयता बचाये रखा हूँ।
नई बीवी और सोशल मीडिया:-शादी के तुरंत बाद सबसे ज्यादा डर इस बात से रहता है कि मेरा पुराना सोशल मीडिया अकाउंट नई नवेली बीवी के हाथों न लग जाए। शुरू शुरू में वो इतना चौकन्ना होतीं हैं कि जासूसी करती रहती है कि पति का पुराना कुछ इतिहास तो नहीं। बिलकुल सीबीआई की तरह पुरानी सरकार की फाइल जैसे तलाशते हैं। कभी कभार झूठे आरोप भी लगा देती हैं उसके बदले में आपको सफाई देनी पड़ती है जैसे विपक्षी दलों को। सरकार फिर न मानने पर आतुर रहती है। फिर आपको आपका कोई ख़ास दोस्त खूब सुनाता है और साथ में सलाह भी देता है अभी भी देर नहीं हुई अकाउंट डिलीट कर दे। ऐसा कोई मौका विपक्ष के पास नहीं होता लेकिन एक पति के पास होता है। वो अलग बात है कि इसके बाद शायद बीवी का शक और भी बढ़ जाए और आपकी मुश्किलें भी। इसलिए यहाँ भी सावधानी से काम लें।
इंस्टाग्राम पर ईद की फ़ोटो पोस्ट किया तो लोगों ने तारीफ भी की और कहा तुमलोग अपना धर्म का प्रचार करना नहीं छोड़ते। फिर एक दिन दोस्त के साथ पूजा मंडप की तस्वीर साझा कर दी तब पता चला मेरा तो ईमान ही नहीं है और मैं मुसलमानों से ख़ारिज हो चूका हूँ।
भागता हुआ ट्वीटर पर अकाउंट बनाया और पिछली चीजों से छुटकारा पाना चाहा। जबतक फॉलोवर कम थे तबतक सबकुछ अपने हिसाब से ट्वीट करता रहा। फिर वहां भी दो ग्रुप बनता रहा पहला दूसरे को अंध भक्त कहता, फिर दूसरा पहले को जयचंद कहता। अस्सी फीसद ट्वीट इस बात पर आने लगे कि कौन अंधभक्त है और कौन जयचंद? बाकी बचा ट्वीट भूखे-नंगे ग़रीबों और सिस्टम में लगे दीमक पर था। कुछ दिन अच्छे बीते फिर इतना नकारात्मक हो गया कि घबराहट होने लगी। फिर ये अकाउंट भी डिलीट कर दिया। दो दिन मुश्किल से बीते होंगे कि फिर से दिमाग और उँगलियों की तलब सामने आने लगी। बार बार प्ले स्टोर की सैर कर रहा हूँ और एक आशियाना ढूंढ रहा हूँ।
लेखक के बारे में
मोहम्मद असलम, पत्रकारिता से स्नातक हैं। सामाजिक घटनाक्रम और राजनीतिक विषयों में रूचि रखतें हैं। इनके ज्यादातर लेख सोशल मीडिया घटनाक्रम पर आधारित होतें हैं। इसके साथ ही एमबीए डिग्री धारक हैं और एक निजी बैंक में सीनियर मैनेजर के पोस्ट पर कार्यरत हैं।
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