
- मोहम्मद असलम
- 27 Dec 2020
- 2M
- 4
किसान आंदोलन: लकवाग्रस्त मीडिया से किसान क्यों गायब है?
भारत में मीडिया का स्वरुप बड़ा हास्यास्पद है. सबसे मजेदार यह है कि उसमें ज्यादातर वैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनल्स शामिल हैँ जिनकी पहुँच सबसे ज्यादा लोगों तक है. उन चैनलों कि प्राथमिकता को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है. इन चैनलों कि रूचि या तो केंद्र कि राजनीति और इमेज को चमकाने में है, बॉलीवुड में है या तो क्रिकेट में है. इन सबसे हटकर इनकी रूचि सास बहु, भूत-प्रेत और पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी है. पाकिस्तान जितनी बार इन चैनलों पर कंगाल और तबाह हो चूका है उतनी बार का ख़बर वहां कि अवाम में भी नहीं होगा.
ऐसा नहीं है कि ये सब कोई एकाएक हो गया हाँ 2014 के बाद यह खुल्लमखुल्ला ज़रूर हुआ है. केंद्र कि राजनीति को वैसा विषय बना दिया गया है कि अगर प्रधान मंत्री, मंत्री पौधे में ग्लास का झूठा पानी भी डाल दे तो ये ख़बर बनाएंगे सरकार का माइक्रो मैनेजमेंट देखिये. इस पानी को फेंका भी जा सकता था लेकिन नहीं, इनकी दूरगामी सोच कितना सकारात्मक और ख़ूबसूरत है. विपक्ष अगर पानी का पूरा टैंकर भी किसी सुखते पेड़ में डाल दे तो भी बड़ी मुश्किल से किसी स्लॉट में जगह ले पायेगा. और उसपर भी कोई सवाल उठा सकता है कि अरे ये इटली स्टाइल है बेकार है..... आदि आदि.....
क्रिकेट में आपको एक-एक गेंद का विश्लेषण करते दिखेंगे और दो समीक्षकों से वो सारी बातें कहलवाएंगे जिससे आप टीवी स्क्रीन से चिपके रहें और तभी उठें जबतक उनका टी आर पी का काम न हो जाए. जितनी खूबी क्रिकेटर खुद अपने बारे में नहीं जानते उससे ज्यादा लम्बी लिस्ट इनके पास होती है.
यही हाल बॉलीवुड के साथ है सितारों की पार्टी के बहाने ग्लैमर का ऐसा तड़का लगाएंगे कि आपकी आँखे फटी कि फटी रह जाएगी. पाकिस्तान पर बात न करें तो अच्छा है. वैसे भी मेरा तो बनता भी नहीं.
राजस्थान गंगानगर से एक दोस्त का का फ़ोन आया है, हल्की फुल्की बांतों के बाद वो दिल्ली की सीमा पर संघर्षरत किसानों की बात छेड़ता है. एक युवा के मुंह से किसानों के संघर्ष की चिंता आपको प्रोत्साहित कर सकता है, और समाज में रीढ़वाले व्यक्ति की गिनती में इज़ाफ़ा भी. उसके सवाल तीखें हैँ लेकिन उनके लिए नहीं जिन्होंने आँखों पर पट्टी बांध रखी है. सवाल सीधा है किसानों को वो कवरेज क्यों नहीं मिल रहा जो कुछ दिन पहले कँगना को मिल रहा था? जो जगह टीवी चैनल्स पर सुशांत सिंह केस को मिल रहा था? जो ट्रम्प-मोदी के नुमाइश को मिल रहा था? बड़ी अजीब है न....
वैसे भी दिल्ली के नेता, युवा, पत्रकार अपनी बाकी की दुनिया में मस्त हैँ. जहाँ किसान पूरी ताक़त से दटें हैँ वहां ना तो कोई गगनचुम्बी मॉल है न ही रंगीनियत बिखेरता माहौल. सिंधु बॉर्डर के जिस क्षेत्र में किसानों ने हुंकार भर रखी है उसके आस पास के इलाके या तो इंडस्ट्रियल एरिया है या तो वास्तविक दिल्ली से दूर माहौल के इलाके. न वहाँ कंनॉट प्लेस वाला पक्की सड़कें हैँ और न ही वैसा खूबसूरत माहौल. ना लाजपत वाली रंगीन दुनिया और न चांदनी चौक वाली भीड़ भाड़. वैसे भी नार्थ दिल्ली का ज्यादातर इलाक़ा गाँव के नाम से जाना जाता है. वहां आज भी ग्रामीण माहौल को महसूस किया जा सकता है. न तो उस रास्ते प्रधान सेवक को जाना होता है ना ही वहाँ कोई बीजेपी का फाइव स्टार ऑफिस है. ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि किसानों के आंदोलन को अगर किसी ने ज़िंदा रखा हुआ है तो वो है किसानों कि वो आदत जो सर्दी, गर्मी और बरसात सह लेने कि शक्ति देता है.
नहीं तो कड़ाके कि ठण्ड में कौन भला अन्न दाताओं को ऐसे छोड़ देता. या तो फिर अन्नदाता कि संज्ञा ही मजाकिया है. जिन स्थानों पर किसान डटे पड़े हैँ उससे केंद्र के सेहत पर कुछ ख़ास असर होता नहीं दीखता. सरकार किसी ठोस हल निकालने के बजाए बेजा बाजा बजाने में लगी है.
और दलाली का दूसरा उदाहरण बन चुकी चैनल्स किसानों को ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी बनाने पर तुले हैँ. ऐसा लगता है मानो चौते स्तम्भ को लकवा मार गया हो और इनकी गाड़ी सरकार रुपी बैसाखी के बगैर चल ही नहीं सकती.
वैसे में याद रखिये इन चैनलों का रिचार्ज का पैसा कही आपके घर बढ़ते बच्चे के विचारों को और कमजोर बनाने पर तो खर्च नहीं हो रहा? क्योंकि भगत सिंह कि पैदाइश मजबूत और शुद्धता वाले माहौल में होगी न कि चाटुकारिता वाले माहौल में.
लेखक के बारे में
मोहम्मद असलम, पत्रकारिता से स्नातक हैं। सामाजिक घटनाक्रम और राजनीतिक विषयों में रूचि रखतें हैं। इनके ज्यादातर लेख सोशल मीडिया घटनाक्रम पर आधारित होतें हैं। इसके साथ ही एमबीए डिग्री धारक हैं और एक निजी बैंक में सीनियर मैनेजर के पोस्ट पर कार्यरत हैं।
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