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स्टूडेंट पॉलिटिक्स यानि की "छात्र राजनीति" आज़ादी के दौर में इसे सेवा का प्रबल दावेदार माना जाता था। खैर वो एक दौर था।  आज तो "मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स" यानि मुख्यधारा की राजनीति में ही कोई "नीति" नहीं बची है। शासन की सांसे फूल रही है फिर भी वो यूनिटी की जगह इम्युनिटी बूस्ट करने पे ज़ोर दे रहा है और प्रशासन इन दिनों बिहार बाढ़ में शर्म से डूब चूका है। हालांकि बाढ़ की स्थिति उतर प्रदेश में भी बनी हुई है लेकिन मेडीअ की तरफ से वहां का कोई अपडेट नहीं है। उसके दो कारण हो सकतें हैं  एक तो मुंबई से यूपी की दूरी ज्यादा है और दूसरा रासुका। और आप को आत्म निर्भर भी तो बनना है।  छात्र राजनीति का जिक्र हो तो कम्युनिस्ट पार्टी का दामन थाम चुके कन्हैया कुमार ताज़ातरीन उदाहरण हैं।  लेकिन कुछ गंभीर आरोप भी हैं उन पर और अंडर जुडिशियल भी है इसलिए उसपर कोई टीपा टिप्पणी उचित भी नहीं है। लेकिन इन दिनों सुर्खियों में है उनकी लिखी एक किताब "बिहार से तिहाड़" जिसका जिक्र "दी लल्लन टॉप" में सौरभ द्विवेदी ने बखूबी किया भी है मगर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता !   

छात्र राजनीति ने मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स में तमाम बड़े नेतृत्व को जन्म दिया फिर  भी रहता हाशिये पर ही है। शायद मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स लोकल से वोकल  की थ्योरी पर काम करता है।  बिहार में लोजपा अपना ही चिराग जलाने में लगी है और राजद अपने हिरा - मोती  को चमकाने में। वहीं यूपी की बात करें तो समाजवाद एक परिवार भर में सिमटा हुआ है और यूपी की लोकल भाषा में "अंधा बाटे घर-घराना खाय" को साकार करता दिख रहा है।  सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इन दिनों आईना साफ़ करने में लगी है देखना है लोगों को कितना पसंद आती है उनकी सफ़ाई। परिवारवाद का गढ़ बन चुके मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स को नये चेहरों की ज़रुरत है।  लेकिन एक ब्लॉगर को समझ आने से कुछ नहीं होगा बल्कि बड़े कुर्सियों पर बैठे साहेब लोगों को समझना होगा।  

" राजनीति की रीति निराली, समझ सको तो समझदार 

चुप रहो तो देश भक्त, और कुछ बोलो तो  गद्दार "

मैं समझता हूँ छात्र राजनीति का विकल्प को ख़त्म करना या कमतर करना लोकतंत्र का गला घोटने जैसा होगा। उन शहीदों की आत्माओ पर जानबूझ कर किया गया प्रहार होगा जिन्होंने आज़ादी की  लड़ाई में अपना सबकुछ निछावर कर दिया। जो अपनी आगे की शिक्षा तक को  छोड़ कर आजादी की लड़ाई मे कूद पड़े थे, जो आज़ादी के लिए लाखो यातनाये सहने के बावजूद आंदोलन करते रहे और अपनी आवाज बुलंद करते रहे। खुशी- खुशी फांसी के फंदे को चुम लिया, अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। भारत के भविष्य के लिए,  सजा-ए-कालापानी भी उन मस्तानो की हिम्मत नहीं तोड़ पाई और जिनके आगे अंग्रेजी हुकूमत ने दम तोड़ दिया। फिर चाहे वो शहीद भगतसिंह हो,  राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, खुद्दी राम बोश या अशफ़ाक़ुल्लाह। "सविनय अवज्ञा " आंदोलन में छात्रों की हिस्सेदारी का ही परिणाम है "ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन" लेकिन वर्तमान स्थिति आदर्श तो नहीं ही दिखती है जिसमें स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स फल फूल सके। अब आप ही तय कीजिए "छात्र राजनीति" का विकल्प ? या कायाकल्प? 

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