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भारत अपने युवा दौर से गुजर रहा है. इसका आप कोई भी मतलब निकाल सकतें है चाहे वो राजनितिक हो, सांस्कृतिक हो या सामाजिक, आर्थिक भी लगा लें तो कोई अचम्भा कि बात नहीं. एक आंकड़े के मुताबिक 2020 में भारत कि 35% आबादी युवाओं से भरी है जिनकी उम्र 15 से 24 वर्ष के बीच है. यह बड़ा रोचक है कि जिस समाज में एक विचारधारा रही है कि ज़िम्मेदारी का कार्य बड़े-बूढ़े का होता है वैसे में युवाओं कि इतनी बड़ी तादात आपको यह सोचने पर मजबूर करता है कि इनकी भूमिका कितनी अहम और कितना ज़िम्मेदाराना है या होगा. क्योंकि जितनी बड़ी इनकी आबादी है वो संख्या बल के हिसाब से आज के दौर के बहुसंख्यक हैँ. और जो समाज में बहुसंख्यक होते हैँ, उनके हिसाब से ही फैसले लिए जाने भी लाज़मी हैँ और ये एक प्राकृतिक सिद्धांत भी है.

भारतीय समाज के वर्तमान में युवाओं का बहुसंख्यक होना कई सवालों से आपको जोड़ता है तो वहीँ आपको अनगिनत समाधानों से भी अवगत करवाता है. एक तरफ आपको ऊर्जा देता है तो दूसरी ओर आपको चेताता भी है कि हड़बड़ी में गड़बड़ी ना हो. जोश में होश न खोया जाए..... इन सबके बीच "युवाओं का मीडिया सरोकार" को समझना और भी रोचक है.

भारत जैसे युवा दौर से गुजर रही है वैसे ही दुनिया तकनीक यानि टेक्नोलॉजी एरा से गुजर रही है. तकनीक ने हमें अपनी जाल में ऐसे समायोजित कर लिया है कि हम उसके बगैर खुद की कल्पना भी नहीं कर सकते. टेक्नोलॉजी ने जैसे जैसे अपने घेरा को बढ़ाया है मीडिया उसी अनुपात में फलती फूलती गई.

और आज मीडिया के अनगिनत रंग रूप ने हमें चारो तरफ से घेर रखा है. उसमें चाहने वाली चीजें भी हैँ और अनचाही चीजें भी. हम उस दौर से बाहर आ चुकें हैँ जब अख़बार लेकर चलने में आपको सजग और पढ़ा लिखा तपका कहलाने का मौका मिलता था अब तो लोग हसेंगे और आपको मिनट भर में बुद्धू, दिखावा करने वाला साबित कर देंगे. ये वो दौर भी नहीं है जब घर घुसते हाथ पैर धोकर पोशाक बदलते चाय कि चुस्की पर टीवी में आनेवाले समाचार को ऐसे देखते थे मानो घर का ज़रूरी काम रह गया हो.ये भी पुरानी कहानी हो गई है जिसमे एक गृहणी शुक्रवार कि चित्रहार और इतवार कि रंगोली के लिए घर का चूल्हा चौका समय से पहले कर लेती थीं ताकि घंटे भर के इस मनोरंजक टीवी शो को जिया जा सके. उन दौर कि सास भी इन मौकों पर बहु के साथ ही रहती होंगी.

वर्तमान युवाओं से अटा पड़ा है और युवा मीडिया से घिरा पड़ा है. ऊँगली खिसकाने भर से बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड के नायक महानायक आपके सामने नाचते गाते दिखने लगतें हैँ. अगले पल ही आप गाँधी के सीने पर तड़ तड़ गोली लगने कि आवाज़ और वीडियो भी सुन देख सकतें हैँ और मन करे तो दुनिया के सबसे ताक़तवर राष्ट्र के राष्ट्रपति को मोदी के साथ गले मिलते देख सकतें हैँ. इन सब में युवाओं का मीडिया सरोकार है.......उसे ये अधिकार है कि दुनिया के बेहतरीन कलाकारों के स्टेज परफॉर्मेंस देख सके, उसे पता होना चाहिए कि गाँधी को क्यों मारा किसने मारा? उनको ये भी पता चलना चाहिए कि गांघी का महत्त्व भारतीय करेंसी पर अलग है और वास्तविक जीवन में अलग.... ये भी पता चलना चाहिए कि मीडिया के इन्ही रूपों ने हमारा सरोकार बदला है... जिस गोडसे को खलनायक कि भूमिका में देखा जाता रहा है वो आज पूजनीय हो गए, नायक बन गए. उसको इसकी भी ख़बर होनी चाहिए कि दुनिया के ताक़तवर राष्ट्र के सामने हमारे प्रधानमंत्री कितनी मजबूती से खड़े दिखतें हैँ.

सनी लियॉनी कि रंगीन वीडियो हो या दीवारों की पुताई करते शाहरुख़ खान. चुनाव प्रचारों का सीधा प्रसारण हो या संसद में आरामदेह् गद्दीदार कुर्सीयों पर नींद में झपकी लेते सांसद..... युवाओं के मीडिया सरोकार को किसी रस्सी से बांधकर घर के कोने में लटकाया भी नहीं जा सकता. जिस सनी लियॉनी को कभी बंद कमरों में देखना पसंद करते थे और मुख्यधारा से अलग रखते थे क्योंकि वो एक प्रोफेशनल पोर्न स्टॉर थीं. आज लोग पोर्न स्टार से अपने शोरूम का उद्घाटन करवाते हैँ उन्हें इस बात से सरोकार रखना पड़ेगा कि समाज भी वक़्त के हिसाब से चश्मे बदलती है और हमारा नज़रिया भी बदल देती हैँ. समझना होगा शांहाःरूख खान पैसे के बगैर कुछ भी नहीं हैँ इसलिए दिवार कि पुताई भी कर ली तो क्या हुआ? ये भी समझना चाहिए कि हमारे राजनेता कोई रोबोट मशीन थोड़े ना हैँ...... झपकी ले भी ली तो क्या? कभी उनके टेंशन के बारे में सोचा है पक्ष में हैँ तो जनता कि खरी खोटी सुनते हैँ और विपक्ष में रहतें हैँ तो ई डी और सीबीआई वाले से बेचैनी. युवाओं का मीडिया सरोकार इन सब विषयों से है और होना भी चाहिए......

फेसबुक पर हिन्दू मुस्लिम डिबेट पर चलनेवाला वोटिंग हो या आसमां कि ओर बिजली कि तृवता से जाता हुआ मंगलयान.......मीडिया ने हजारों किलोमीटर दूर घटित चीजों को जब हमारी नग्न आँखों के सामने लाकर रख देती है तो युवाओं का उससे वास्ता दिखने लगता है. उनको उन विषयों पर बहस करने का मौका मिलता है..... उनको उन घटनाओं में अपने विचार के अंश दिखतें हैँ.

उसी वक़्त यह भी समझना होगा कि दुनिया में सबसे ज्यादा राजनयिक शक्ति रखनेवाले राजनेता यानि कि अमेरिका के राष्ट्रपति को  भी मीडिया सच का आईना दिखा सकती है. डोनाल्ड ट्रम्प जब झूठ पर झूठ बोले जा रहे थे तब उसी देश के लगभग 150 वर्ष पुराने मीडिया हाउस ने कुछ वैसा किया जिसके लिए रीढ़ कि मजबूत हड्डी कि दरकार पड़ती है. डोनाल्ड ट्रम्प अपने कार्यकाल में 30 हजार से ज्यादा झूठ बोलतें हैँ जिसकी जानकारी उसी देश के दुनियाभर में ख्याति प्राप्त "वाशिंगटन पोस्ट" देती है. जबकि भारत में कुछ सबसे बड़े मीडिया हाउस सरकार कि तऱफदारी में अनगिनत टॉक शो चलातें हैँ और हर उस फैसले को सही ठहरानेवाली रेपोर्टिंग करतें हैँ जिससे उसपर उठनेवाले तीखे सवालों को झूठलाया जा सके.क्या ऐसी रेपोर्टिंग दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में वर्तमान में संभव है अगर हाँ तो उसकी क्या कोई कीमत चुकानी पड़ सकती है? या नहीं. ये सवाल तभी सवाल बनतें हैँ जब एक युवा का मीडिया से सरोकार होता है. 

युवाओं का मीडिया सरोकार से सरकारें भी अवगत हैँ..... यही वजह है कि राजनितिक दलों ने मीडिया सेल का निर्माण किया है और युवाओं के आचार विचार को एक विशेष वर्ग से बाँध देना चाहतें हैँ ताकि उसका उनके हिसाब से उपयोग में लाया जा सके. अगर आप ट्वीटर और फेसबुक पर सक्रिय हैँ तो आप समझ सकतें हैँ कि कैसे दिनभर अलग अलग मुद्दों पर उनको अपनी ओर आकर्षित किया जाता है. डिबेट में और गणना में शामिल किया जाता है. यही हाल कंपनियों का है जो अपने उत्पादों और वस्तुओं को समाज के कोने कोने में विस्तार के लिए युवाओं का मीडिया वास्ता को समझतीं हैँ. 

इतिहास गवाह है हर महान व्यक्तित्व ने युवाओं और उनके मीडिया सरोकार को देखा है, समझा है ....और उसको अपने पक्ष में लाने का भरसक प्रयास भी किया है. 

 

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