
- बिपिन कुमार
- 03 Sep 2020
- 2M
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चौथी दुनिया और TRP का ख़ेल
भारतीय संविधान में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया है, हालांकि इसकी हालत जर्ज़र है ये और बात है। आइये समझते हैं TRP को यानि (टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट ) इन तीन साधारण से दिखने वाले शब्दों ने देश दुनिया के जीने का अंदाज ही बदल रखा है। साथ में मीडिया की भूमिका को भी ?
कहने के लिए तो TRP टेलीविज़न की लोकप्रियता मापने का एक पैमाना भर है जो टेलीविज़न के ज़रिये धारावाहिक या न्यूज़ आप अपने घरों में देखतें हैं, ये किस स्तर पर देखा जा रहा है और कितना पसंद किया जा रहा है बस इसी को दर्शाता है TRP......
यह इंडियन नेशनल टेलीविज़न ऑडियंस मेजरमेंट (INTAM) के देख रेख मे चलता है, अब आप सोच रहे होंगे इसमें गलत क्या है तो आप ने वो मशहूर कहावत तो सुनी होंगी "हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और " वास्तविक रूप में मीडिया सरकार का स्थाई विपक्ष है लेकिन आज स्थिति इसके ठीक उलट है। समझ आ ही नहीं रहा है कि सरकार मीडिया की है ? या मीडिया सरकार की है? यहां एक, दो बुझते हुय चरागों को छोड़कर बाकि का मीडिया सरकार की दी हुई स्याही से अपनी हेडलाइन चला रहा है ? मीडिया का काम था दबे कुचले, पिछड़े, शोषित की आवाज़ बनना, समाज को अंधेरे से नई रोशनी के ओर ले जाना।
लेकिन स्थिति बिलकुल अलग है मीडिया खुद दिशा विहीन दिखती है, मीडिया का दाइत्व है लोकतंत्र की आखिरी आवाज को सरकार के सामने रखना। एक स्वस्थ नेतृत्व प्रदान करना व लोगो को संगठित करना, लेकिन आज मीडिया ही सबसे ज्यादा लोगों को गुमराह कर रही है।और साहब संगठित करना तो दूर, खुद मीडिया में संगठन नहीं है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यरोप मानो रोज की दिनचर्या में शामिल हो। TRP के पीछे की हक़ीक़त ये है कि एक चैनल की TRP ही तय करती है इसके कमाई और इसपर प्रसारित विज्ञापन कादाम। फिर वो आपको जरुरत से ज्यादा जबरन दिखाये जाते हैं। ये सब काफी हद तक TRP की ही देन है, और चैनल में इन्वेस्टमेंट भी इस TRP को ध्यान में रख कर किया जाता है ?
लोकप्रिय होने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते नैतिकता का ध्यान रखा जाए और भाषा मर्यादित हो। मैं एक बेहद छोटे से गांव से सम्बन्ध रखता हूँ, बचपन में जब हमारे घर सुबह अख़बार आता था तो हमारी ड्यूटी लगती थी पढ़कर सबको सुनाने की, अगल-बगल घर और पड़ोस के बड़े बुजुर्ग चारपाई पर बैठकर सुनते थे। और हमें हिदायत थी खड़े होकर पढ़ने की फिर सुनने के बाद आपस में मनन चिंतन दिन भर चलता था। शायद इसलिए प्रिंट मीडिया के प्रति बचपन से मन में बड़ा सम्मान है। लेकिन विज्ञापन यहां भी हावी है। खैर आगे बढ़ते हैं जहाँ सुबह की शुरुआत अख़बार से तो शाम ढलते रेडियो को घेर कर /इक्क्ठा होकर सुनते थे और उन दिनों रेडिओ पर समाचार सुनना गौरव की बात थी। लेकिन आज कल संजय रूपी मीडिया धृतराष्ट्र को सुनाने के बजाय दिखाने पर जोर दे रहा है। उन दिनों सारे जरुरी प्रसारण रेडियो पर ही आते थे जब कभी जवानो को जरुरत पड़ने पर छुट्टी से वापस बुलाना होता था तो रेडिओ को ही माध्यम चुना जाता था, "मन की बात" तो केवल किस्से कहानियों में सुनने को मिलते थे। इलेक्ट्रानिक मीडिया देखना तो आजकल अपने आप में दिलेरी का काम है, जो चीखने चिल्लाने की आवाज आती है उससे तो पहली बार देखने वाला आदमी घबरा जाय।
विश्व युद्ध तो दिन मे कई बार होते है और दुनिया ख़त्म होने की तारीख बदलती रहती है, मैं तो समझ नहीं पा रहा हूँ न्यूज़ आता किस चैनल पर है और कितने बजे ? पहले दूरदर्शन पर बताया जाता था आप इतने बजे का समाचार सुन रहे हैं, ग्लैमर की मार झेल रहे दूरदर्शन के तो दर्शन ही दुर्बल हो गये हैं। और होना भी था क्योंकि अनाथ बच्चे की जिम्मेदारी सौतेली माँ के हाथ में जो है। जो सरकार के सगे वाले चैनल है उन्होंने चीख चीख कर दूरदर्शन की आवाज ही दबा दी है। पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार पत्रकार कम सेलिब्रिटी ज़्यादा होने की होड़ लगी है। और मीडिया आम आदमी की पहुंच से दूर है। अब ये आप की जिम्मेदारी है एक पाठक के रूप में , एक श्रोता के रूप में , एक दर्शक के रूप में किस तरह का मीडिया आप के लिए ज़रूरी है।
लेखक के बारे में
मानवाधिकार विषय का छात्र
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