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9 सितम्बर को रात 9 बजे एक मुहीम चलाई गई जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के "जनता कर्फ्यू" वाले दिन 5 बजे 5 मिनट ताली, थाली, घण्टी बजानेवाली अपील से प्रेरित थी।  ट्विटर पर जो इससे सम्बंधित सन्देश आये और लोगों का रिएक्शन आया उससे लगता है कि ये मुद्दा हिट रहा। ट्विटर पर ही ये मुहीम काफ़ी देर तक एक नंबर पर ट्रेंड करता रहा। आठ लाख से भी ज़्यादा ट्वीट के दावे किये गए। इसका कांग्रेस, आरजेडी और सपा जैसे कुछ राजनीतिक दलों ने समर्थन भी किया था।

क्या बेरोजगारी भारत में एक गंभीर समस्या है ? अगर हाँ तो क्या ट्विटर से इसका निज़ात निकल आएगा ?  भारत के सबसे बड़े राजनीतिक दल को इस मुद्दे से डर क्यों नहीं लगता ? क्या ये मुद्दा इतना गंभीर नहीं है जिसपर सरकार को सामने आकर बेरोजगारों से बात करनी चाहिए ? क्या बेरोजगारी मुठ्ठी भर लोगों की समस्या है या फिर नौजवान भी इससे इत्तेफ़ाक़ रखतें हैं ? अगर नौजवान भी इत्तेफ़ाक़ रखतें हैं तो जो नौजवान लाखों में राजनीतिक रैलियों को आबाद करतें हैं वही नौजवान हजारों में ही सही सड़कों पर बेरोजगारी की लड़ाई में क्यों नहीं दीखते ? 

ऐसे ही सवालों की लड़ी लगाई जा सकती है लेकिन सच पूछे तो ऐसा लगता है कि रोजगार के मुद्दे पर युवा बटा हुआ है। कांग्रेस के राहुल गाँधी इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को घेरते हुए दिखतें तो है लेकिन सरकार इस मुद्दे पर चिंतित नहीं दिखती। उन्हें नौजवानों पर पूरा भरोसा है कि मुद्दा तो उनका (बीजेपी का) ही चलेगा।      

धरातल पर सच्चाई कुछ और है, और जो है उसमे "एक अनार सौ बीमार" वाली कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। एक नौकरी के पीछे हजारों की भीड़ खड़ी है। पोस्ट ग्रेजुएट सफ़ाई कर्मचारी बनने को तैयार हैं। बेरोजगारी कोई नवजात समस्या तो नहीं है ये मोदी से पहले भी था,आज भी है।  हाँ आज ये और भी बड़ा रूप धारण कर चुकी है। कांग्रेस विपक्ष में होने के नाते इसको भुनाना चाहती है जो की ग़लत भी नहीं दीखता। नहीं तो विपक्ष के क्या मायने रह जायेंगे ? वैसे भी वर्तमान में विपक्ष काफ़ी कमजोर है ऐसी भावना घर कर चुकी है लोगों में। 

9 सितम्बर को जिस दिन ये मुहीम चलना था उसी दिन कंगना का मुंबई वाले ऑफिस पर बीएमसी ने हाबड़-ताबड़ में कार्यवाही कर डाली।  फिर क्या था मीडिया के सारे कैमरे वहीं जाकर टिक गए कंगना बनाम महराष्ट्र सीएम होने लगा। ये सिर्फ संयोग था या प्रयोग का फैसला आप ही करें। अगर विपक्ष इस मुहीम को सच में ज़ोरदार तरीके से लोगों के सामने रखना चाहती थी तो इसपर बहुत कुछ किया जाना था। 

कुछ चैनल्स जैसे की "भारत समाचार" लगातार इसपर कवरेज देते रहे लेकिन टीआरपी वाले चैनल्स कन्नी काटते दिखे। रविश का प्राइम टाइम हमेशा से अलग रहा है अगर कॉन्टेंट यानि विषय सामग्री की बात करें तो। ख़ासकर रोजगार के मुद्दे को हमेशा तरज़ीह दी गई है इस शो में।  लेकिन लोगों को सादे समाचार में कम ही स्वाद आता है।जो टीआरपी पर टॉप हैं उन्हें मसाले के बग़ैर कुछ परोशना भी नहीं आता।         

हमलोग सभी किसी न किसी व्हाट्सएप्प ग्रुप से जुड़ें हैं, नौकरी ने नाम पर लोगों से पूछ लीजिये की इक्छुक लोग इस ईमेल आई डी पर अपना "सीवी" यानी "पढ़ाई लिखाई और कार्य का सारांश" भेजें।  मजाक ही सही लेकिन आपको लोगों में नौकरी की ज़रुरत और उसकी संख्या चौका जाएगी।  पिछले दिनों एक जानने वाले का फ़ोन आया जो पुराने कम्पनी में बैक ऑफिस में कार्यरत था।  भरे हुए गले में उसने बात की कि कोई नौकरी नहीं है और घर का किराया तक नहीं भरा जा रहा।  मैंने फल बेचना शुरू कर दिया है लेकिन उससे भी इतनी आमदनी नहीं है कि घर चल पाए।  एक स्नातक व्यक्ति ऐसी बात करे जो तालाबंदी से पहले तक रोजगार था तो ऐसे में आपको सोचना पड़ेगा कि असली मुद्दा चीख़ते एंकर उठाते हैं या नहीं।  ऐसे उदाहरण आपको आपके आस पास भी मिल जायेंगे।  

फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप्प स्टेटस तक जितने पोस्ट कंगना, उद्धव ठाकरे और BMC पर दिखें उसके आधे भी बेरोजगारी पर नहीं थी। बड़े समाचार चैनल्स उतना ही दिखा रहे थे जितना वो गुड़गांव में पानी भराव में फसे कार या बस को दिखा देते हैं।  राहुल गाँधी हमेशा ये कहते आएं हैं कि प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी ने हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा किया था।  इसपर मोदी पहले भी एक साक्षात्कार में साफ़ कर चुके हैं कि ऐसी बात करनेवालों को होमवर्क करके आना चाहिए। मतलब कि ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया था जिससे हर वर्ष दो करोड़ रोजगार वाली बात को वादा माना जाए। ये वैसे ही है जैसे की केजरीवाल तब के मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जेल भेजने की बात करते थे। ये वैसे ही है जैसे वाहट्सएप्प पर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी से आई लिस्ट जिसमें कांग्रेस के नेताओं के नाम के साथ काले धन की राशि भी लिखी आती थी।  मतलब ऐसी बातें चुनावी होती हैं। इंद्रधनुष की तरह खूबसूरत होतें हैं जो जल्दी ही आसमान में खो जाते हैं।  

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