
- मोहम्मद असलम
- 09 Sep 2020
- 2M
- 2
कितना बदल गया इंसान..पार्ट-1 (मदरसा)
मेरा जन्म एक गरीब लेकिन ईमानदार परिवार में हुआ। धमधम्मा नामक एक छोटे से गाँव में रहकर मदरसे में पढाई शुरू की। तब तक मेरे गाँव वालों के ज़ेहन में पढाई का मतलब सिर्फ इस्लामी यानी धार्मिक ज्ञान हासिल करना था। मेरे अब्बू तब एक मदरसे में मौलवी हुआ करते थे। जैसे-जैसे परिवार बढ़ता गया अब्बू के कंधे पर जिम्मेदारियां बढती गयी। तब अब्बू को मुश्किल से 100 रूपये मिला करते थे। मदरसे में मौलवी बनकर परिवार का भरण-पोषण करना इतना आसान भी नहीं है।सच पूछें तो आज भी कुछ ऐसे ही हालात हैं।
गाँव में मुश्किल से सत्तर परिवार हुआ करते थे। गाँव संसाधनों से बिलकुल दूर थी। बिजली के नाम पर कुछ खम्भे हम ज़रूर देखा करते थे। खम्भे के बारे में हम जब कभी पूछते तो यही पता चलता कि इन्द्रा गांधी के जमाने में इस गाँव में बिजली हुआ करती थी। तब से आज तक स्वर्गीय प्रधानमंत्री इन्द्रा गांधी का दिल में बड़ी इज़्ज़त है। क्योंकि जो सुविधा हम अपने बचपन में नहीं देख पाए थे, वो मेरे अब्बू ने अपने बचपन में देखा था। घर की जिम्मेवारियों को देख अब्बू मौलवी का काम छोड़ गाँव से शहर आ गए। ताकि ज्यादा कमाया जा सके और परिवार को पालना आसान हो सके। बस यही वो बदलाव था जो आजतक अपनी ओर खींचता चला आ रहा है।
हर रोज़ सुबह सात बजे हम (मैं अपनी दो बहनो और एक भाई साथ) एक हाथ में उर्दू की कुछ किताबें और दूरसे हाथ में बोरा (बैठने का कतरन) लेकर मदरसे की ओर भागते। क्योंकि मिनट भर का देर मौलवी साहब को गुस्से से भर देता था और हम बांस की छड़ी के हक़दार बन जाते थे। पतले से कुरते पजामे पर वो छड़ी जबरदस्त असर छोड़ती थी। इसलिए हम हर हाल में उससे बचना चाहते थे। मदरसे की वो पढ़ाई हमेशा याद रहने वाली है। मौलवी साहब का गुस्सा हमेशा सातवें आसमान पर होता था। जो हमें कभी लपलपाती छड़ी के रूप में तो कभी धूप में मुर्गा बनकर सहना पड़ता था। मुर्गा बनना तो चलो आम बात थी लेकिन उसके बाद जो होता था वो बड़ा परेशान करनेवाला था। मुर्गे की हालत में सिर नीचे और तशरीफ़ ऊपर होता था। हम दोनों टांगो के बीच से थोड़े देर-देर में मौलवी साहब को निहायत शराफ़त के साथ देख लिया करते थे ताकि वो रहम खाकर वापस चटाई पर बुला लें। इसी बीच जिस लड़के को मौका मिलता वो कंकर उठाकर मुर्गा रुपी सहपाठी पर फेंक देता। ये अच्छा भी था और बड़ा लज़्ज़ित करनेवाला होता था। लेकिन वज़ह भी बन जाती थी, कमर सीधा करके मौलवी साहब से शिकायत करने की। लेकिन मौलवी साहब भी समझते थे और कुछ सेकंड होने से पहले ही फिर मुर्गा बना देते। गुरु तो आख़िर गुरु होतें हैं। चेहरा लाल हो जाता और टांगें कांपने लगती थीं।
मदरसे से घर वापस आते ही कभी गिल्ली-डंडे तो कभी गोली (कंचा ) खेलने भाग जाया करते। शाम जब वापिस घर लौटते तो अम्मी की आँखों से बचते हुए डाँट के डर से दूसरे दरवाजे सीधे अंदर कमरे में घुस जाते। लेकिन अम्मी भी कहाँ बुद्धू थी, उनकी भी पारखी नज़र होती थी। अक़्सर पकड़े जाने पर बुलाकर यह ज़रूर देखती कि कुरते पजामे की क्या हालत है। कभी-कभार वो भी पिटाई की वज़ह बन जाती थी।
आज बच्चें बहुत खुश हैं क्योंकि शहर से आज कुछ दोस्तों के अब्बू शाम की गाड़ी (बस) से आनेवाले हैं। ख़ुशी सातवें आसमान है, सबने हाथ पैर अच्छे से धो लिया है, साफ़ कपड़े पहन रखें हैं। सड़क पर खड़े बेचैनी से आते-जाते हर उस वाहन के रौशनी को ख़ुशी से तबतक देखतें रहतें हैं जबतक वो सामने से ट्रक या ट्रेक्टर के रूप में सामने से गुज़र नहीं जाती। माएँ घर के बाहर दरवाज़े पर खड़ीं देख रहीं हैं उनको पता है कि शहर से एकमात्र आनेवाली का समय क्या है लेकिन बच्चे हैं कि समझने को तैयार ही नहीं हैं।
अब्बू शहर में रहने लगे थे इसलिए जब भी घर आते तो अम्मी को ये समझा जाते कि बच्चों को हिंदी, अंग्रेजी की भी पढ़ाई करवानी है। शहर में अब्बू के कुछ अच्छे दोस्त बन गए थे जो ये बातें बताया करते थे।
फिर अम्मी ने भी हमारा ट्यूशन शुरू करवा दिया जिसे गाँव वाले "प्राइवेट पढ़ाई" कहा करते थे। हम गाँव के मशहूर हिंदी- इंग्लिश मास्टर साहब के पास जाते और पढ़ते। मास्टर साहब ने खुद सिर्फ दसवीं तक की पढ़ाई की थी। लेकिन गाँव में उनकी बड़ी इज़्ज़त थी।
मैं प्रेम चन्द की कोई कहानी नहीं सुना रहा बल्कि नब्बे के दशक की बीती बात बता रहा हूँ। वो भी झारखण्ड के एक गाँव की।
हम बड़े होते गए तो अब्बू को एहसास हुआ कि अब हमारी पढ़ाई शहर में होनी चाहिए। क्योंकि गाँव में न तो कोई नामी स्कूल था और न ही शहर जैसे टीचर। फिर अब्बू हमें (मुझे और भैया को) शहर ले आये। तब से आज तक हम शहर के होकर रह गए हैं। धनबाद में अब्बू ने अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला करवा दिया। फिर पूरे गाँव में यह बात आग की तरह फ़ैल गयी कि फलाना मियां (मेरे अब्बू) के दोनों बेटे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं। तब से हम जब कभी गर्मी की छुट्टी में गाँव जाते तो आस पड़ोस के लोग जमा हो जाते और चिट्ठियाँ लिखवाते। रोमन अक्षर में लेटर लिखना एक क़माल की चीज़ थी जिसे बड़े ताम-झाम से परोसा जाता और सबको बताया जाता की देखो इंग्लिश में ख़त लिखा गया है। इससे पहले हिंदी में चिट्ठी लिखने का काम मेरे चाचा किया करते थे जो शायद पूरे गाँव में दूसरे तीसरे मैट्रिक पास रहे होंगे।
धमधम्मा से पहले मैं धनबाद आया और अब दिल्ली में हूँ। मेरे घरवालों ने कितना सोचा था मेरे बारे में मुझे नहीं पता, लेकिन बीस साल की उम्र तक मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी दिल्ली में रहूँगा।छोटे और पिछड़े से गांव में जिसने बचपन गुजारी हो उनके लिए बड़े शहरों में अंग्रेजी माहौल में एडजस्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। बड़ी अजीब इत्तेफाक है कि आज मैं दिल्ली में बैठा आपको टूटी-फूटी ब्लॉग पढ़ने को परोस रहा हूँ। धनबाद से दिल्ली का सफ़र अगले ब्लॉग में पेश करूंगा जो कि बड़ा लिज्जत वाला होना चाहिए।
लेखक के बारे में
मोहम्मद असलम, पत्रकारिता से स्नातक हैं। सामाजिक घटनाक्रम और राजनीतिक विषयों में रूचि रखतें हैं। इनके ज्यादातर लेख सोशल मीडिया घटनाक्रम पर आधारित होतें हैं। इसके साथ ही एमबीए डिग्री धारक हैं और एक निजी बैंक में सीनियर मैनेजर के पोस्ट पर कार्यरत हैं।
You Might Also Like
Leave A Comment
Featured
-
- मोहम्मद असलम
- 07 Oct 2025
wwe
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 16 Jun 2023
मुझे मेरा राजीव लौटा दीजिए मैं लौट जाऊंगी.....
- ट्विटर कॉर्नर
-
- मोहम्मद असलम
- 14 Jun 2023
“मैं ऐसा-वैसा फकीर नहीं हूँ, मेरे हाथ में पैसे दे”
- ट्विटर कॉर्नर
-
- मोहम्मद असलम
- 06 Jun 2021
#लाला_रामदेव
- ट्विटर कॉर्नर
-
- मोहम्मद असलम
- 24 Apr 2021
सबकुछ याद रखा जायेगा?
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 18 Mar 2021
युवाओं का मीडिया सरोकार!
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 11 Jan 2021
डि टू डि : ट्रैवल ब्लॉग
- मोटिवेशनल स्टोरीज
-
- मोहम्मद असलम
- 15 Nov 2020
#अनुष्का_अपना_कुत्ता_संभाल = संकीर्ण विचारों का परिणाम
- ट्विटर कॉर्नर
-
- मोहम्मद असलम
- 18 Oct 2020
परफेक्ट नेता और इम्परफेक्ट जनता
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 08 Sep 2020
स्मृति ईरानी और ट्विटर : पेट्रोल के बढ़ते दाम
- ट्विटर कॉर्नर
-
- बिपिन कुमार
- 30 Aug 2020
चलो बाढ़ बाढ़ खेलें
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 24 Aug 2020
मसालेदार टीवी जर्नलिज्म
- टिप्पणी
-
- मोहम्मद असलम
- 24 Aug 2020
मैं मोहित कौशिक
- मोटिवेशनल स्टोरीज
-
- मोहम्मद असलम
- 23 Aug 2020
दिल कबड्डी!
- टिप्पणी
Advertisement

2 Comments
admin
Your Comment is Under Review...!!!
Shakeel Ahmad
Bahut khoob . Ek suchchai bata raha hu k ek din apko apne DHAMDHMMA ki yad bahut ayegi .